Tuesday, May 22, 2012

माँ पूर्णागिरी (पुन्यागिरी) : धर्म व आस्था का संगम



Where To Stay

  • KMVN Tourist Rest House, Tanki, Purnagiri.
For all basic amenities, Tanakpur is the place to visit.

What to See

A beautiful temple dedicated to goddess ‘Purnagiri’. An awe inspiring and spiritual experience that harmonizes our mind, body and soul. Rallies of devotees that climb up the mountains sing hymns and prayers to devi Purnagiri, in order to seek her blessings.

Beyond Purnagiri

maa_purnagiri_map
पूर्णागिरी मंदिर को जाने का रास्ता
Tanakpur- About 22 km’s from Purnagiri, Tanakpur is a calm and small town located is a calm and small town located on riverside of Sharda River. It is Located at the foothills and is the last plain area on the road to Kumaon zone of Uttarakhand. It acts as a junction for the Kumaon Zone’s mountainous region. It is also the first point in the Kailash-Mansarovar pilgrimage.
Champawat- Champawat offers the tourists virtually everything they expect from nature, raging from pleasant climate to varied wildlife and good places to trek. Champawat was the capital of the Kumaon rulers for a very long time. The historical ruins of the fort of the chand rulars can bee seen here in Champawat. The Baleswar and Rataneshwar temples, which display the exquisite works of carvings, are also situated in this town.
Pithoragarh- This easternmost hill district of the Uttarakhand is often referred as ‘Miniature Kashmir’. The district of Pithoragarh came into being in 1960 when it was carved out of the district of Almora. It borders with China (Tibet) on the north and Nepal on the east.



कथा

किंवदन्ती है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री पार्वती (सती) ने अपने पति महादेव के अपमान के विरोध में दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ कुण्ड में स्वयं कूदकर प्राण आहूति दे दी थी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से महादेव के क्रोध को शान्त करने के लिए सती पार्वती के शरीर के ६४ टुकडे कर दिये। वहॉ एक शक्ति पीठ स्थापित हुआ। इसी क्रम में पूर्णागिरि शक्ति पीठ स्थल पर सती पार्वती की नाभि गिरी थी।

यह स्थान चम्पावत से ९५ कि.मी.की दूरी पर तथा टनकपुर से मात्र २५ कि.मी.की दूरी पर स्थित है। इस देवी दरबार की गणना भारत की ५१ शक्तिपीठों में की जाती है। शिवपुराण में रूद्र संहिता के अनुसार दश प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ किया गया था। एक समय दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया परन्तु शिव शंकर का अपमान करने की दृष्टि से उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। सती द्वारा अपने पति भगवान शिव शंकर का अपमान सहन होने के कारण अपनी देह की आहुति यज्ञ मण्डप में कर दी गई। सती की जली हुई देह लेकर भगवान शिव शंकर आकाश में विचरण करने लगे भगवान विष्णु ने शिव शंकर के ताण्डव नृत्य को देखकर उन्हें शान्त करने की दृष्टि से सती के शरीर के अंग पृथक-पृथक कर दिए। जहॉ-जहॉ पर सती के अंग गिरे वहॉ पर शान्ति पीठ स्थापित हो गये। पूर्णागिरी में सती का नाभि अंग गिरा वहॉ पर देवी की नाभि के दर्शन पूजा अर्चना की जाती है।

माँ पूर्णागिरि का महातम्य
चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण चंपावत जिले के प्रवेशद्वार टनकपुरसे 19किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108सिद्धपीठोंमें से एक है। तीन ओर से वनाच्छादित पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा के बीच कल-कल करती सात धाराओं वाली शारदा नदी के तट पर बसा टनकपुर नगर मां पूर्णागिरि के दरबार में आने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है। इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं किंतु चैत्र मास की नवरात्र में यहां मां के दर्शन का इसका विशेष महत्व बढ जाता है। मां पूर्णागिरि का शैल शिखर अनेक पौराणिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए है। पहले यहां चैत्र मास के नवरात्रियों के दौरान ही कुछ समय के लिए मेला लगता था किंतु मां के प्रति श्रद्धालुओं की बढती आस्था के कारण अब यहां वर्ष-भर भक्तों का सैलाब उमडता है।
मां पूर्णागिरि में भावनाओं की अभिव्यक्ति और शक्ति के प्रति अटूट आस्था का प्रदर्शन होता है। पौराणिक गाथाओं एवं शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार जब सती जी के आत्मदाह के पश्चात भगवान शंकर तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से सती के शरीर को लेकर आकाश मार्ग में विचरण करने लगे। विष्णु भगवान ने तांडव नृत्य को देखकर सती के शरीर के अंग पृथक कर दिए जो आकाश मार्ग से विभिन्न स्थानों में गिरे। कथा के अनुसार जहां जहां देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
मां सती का नाभि अंग अन्नपूर्णा शिखर पर गिरा जो पूर्णागिरि के नाम से विख्यात् हुआ तथा देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिका गिरि,कालिका गिरि,हमला गिरि पूर्णागिरि में इस पावन स्थल पूर्णागिरि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। देवी भागवत और स्कंद पुराण तथा चूणामणिज्ञानाणव आदि ग्रंथों में शक्ति मां सरस्वती के 51,71 तथा 108 पीठों के दर्शन सहित इस प्राचीन सिद्धपीठ का भी वर्णन है जहां एक चकोर इस सिद्ध पीठ की तीन बार परिक्रमा कर राज सिंहासन पर बैठा।
पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्माकुंडके निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मादेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रियोंमें देवी के दर्शन से व्यक्ति महान पुण्य का भागीदार बनता है। देवी सप्तसती में इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियों में वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वह व्यक्ति सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न होगा।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरि के दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यास नामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर झूठे का मंदिर के नाम से जाना जाता है।
कहा जाता है कि एक बार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरि के उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया किंतु दयालु मां ने इस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर उसे आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी। कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबा के नाम से मोटी रोटी [रोट] बनाकर सिद्धबाबाको अर्पित करते हैं। यहां यह भी मान्यता है कि मां के प्रति सच्ची श्रद्धा तथा आस्था लेकर आया उपासक अपनी मनोकामना पूर्ण करता है, इसलिए मंदिर परिसर में ही घास में गांठ बांधकर मनौतियां पूरी होने पर दूसरी बार देवी दर्शन लाभ का संकल्प लेकर गांठ खोलते हैं। यह परंपरा यहां वर्षो से चली रही है। यहां छोटे बच्चों का मुंडन कराना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
कहा जाता है कि इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है। इसलिए इसकी विशेष महत्ता है। यहां प्रसिद्ध वन्याविद तथा आखेट प्रेमी जिम कार्बेट ने सन् 1927 में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरिके प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफी ख्याति प्रदान की।
\

दक्ष प्रजापति

दक्ष प्रजापति को अन्य प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र के रूप में रचा था। दक्ष प्रजापति का विवाह स्वयंभुव मनु की तृतीय कन्या प्रसूति के साथ हुआ था। दक्ष प्रजापति की पत्नी प्रसूति ने सोलह कन्याओं को जन्म दिया जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि का साथ, सुधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ सती नामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ, और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे- श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी और मूर्ति।
दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। शंकर जी के समझाने के बाद भी सती अपने पिता उस यज्ञ बिना बुलाये ही चली गईं। यज्ञस्थल में दक्ष प्रजापति ने सती और शंकर जी का घोर निरादर किया। अपमान सह पाने के कारण सती ने तत्काल यज्ञस्थल में ही योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया। सती की मृत्यु का समाचार पाकर भगवान शंकर ने वीरभद्र के द्वारा उस यज्ञ का विध्वंश करा दिया। वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति का सिर भी काट डाला। बाद में ब्रह्मा जी की प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने दक्ष प्रजापति को उसके सिर के बदले में बकरे का सिर प्रदान कर उसके यज्ञ को सम्पन्न करवाया।

सती
पौराणिक कथाओं मे सती को शिव की पूर्व पत्नी कहा जाता है। दक्ष प्रजापति की कन्या का नाम (दाक्षायनी) दिया जाता है। मगर सती शब्द शक्ति नाम का अपभ्रंश रूप है। शक्ति का दूसरा नाम ही सती है।

वीरभद्र
वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया. देवसंहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. देवसंहिता गोरख सिन्हा द्वारा मद्य काल में लिखा हुआ संस्कृत श्लोकों का एक संग्रह है जिसमे जाट जाति का जन्म, कर्म एवं जाटों की उत्पति का उल्लेख शिव और पार्वती के संवाद के रूप में किया गया है.
ठाकुर देशराज [1]लिखते हैं कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा कही जाती है. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर तो महादेवजी को ही बुलाया और ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया. यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है.
स्वयंभुव मनु
स्वयंभुव मनु संसार के प्रथम पुरुष थे ऐसी हिंदू मान्यता है। सुखसागर के अनुसार सृष्टि की वृद्धि के लिये ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम 'का' और 'या' (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयंभुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाये।

सुखसागर

भागवत (सुखसागर) की कथाएँपाण्डवों का हिमालय गमन

भगवान श्रीकृष्णचन्द्र से मिलने के लिये तथा भविष्य का कार्यक्रम निश्चित करने के लिये अर्जुन द्वारिकापुरी गये थे। जब उन्हें गये कई महीने व्यतीत हो गये तब एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर को विशेष चिन्ता हुई। वे भीमसेन से बोले – “हे भीमसेन! द्वारिका का समाचार लेकर भाई अर्जुन अभी तक नहीं लौटे। और इधर काल की गति देखो, सम्पूर्ण भूतों में उत्पात होने लगे हैं। नित्य अपशकुन होते हैं। आकाश में उल्कापात होने लगे हैं और पृथ्वी में भूकम्प आने लगे हैं। सूर्य का प्रकाश मध्यम सा हो गया है और चन्द्रमा के इर्द गिर्द बारम्बार मण्डल बैठते हैं। आकाश के नक्षत्र एवं तारे परस्पर टकरा कर गिर रहे हैं। पृथ्वी पर बारम्बार बिजली गिरती है। बड़े बड़े बवण्डर उठ कर अन्धकारमय भयंकर आंधी उत्पन्न करते हैं। सियारिन सूर्योदय के सम्मुख मुँह करके चिल्ला रही हैं। कुत्ते बिलाव बारम्बार रोते हैं। गधे, उल्लू, कौवे और कबूतर रात को कठोर शब्द करते हैं। गौएँ निरंतर आँसू बहाती हैं। घृत में अग्नि प्रज्जवलित करने की शक्ति नहीं रह गई है। सर्वत्र श्रीहीनता प्रतीत होती है। इन सब बातों को देख कर मेरा हृदय धड़क रहा है। जाने ये अपशकुन किस विपत्ति की सूचना दे रहे हैं। क्या भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस लोक को छोड़ कर चले गये या अन्य कोई दुःखदाई घटना होने वाली है?”
उसी क्षण आतुर अवस्था में अर्जुन द्वारिका से वापस आये। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, शरीर कान्तिहीन था और गर्दन झुकी हुई थी। वे आते ही धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों में गिर पड़े। तब युधिष्ठिर ने घबरा कर पूछा – “हे अर्जुन! द्वारिकापुरी में हमारे सम्बंधी और बन्धु-बान्धव यादव लोग तो प्रसन्न हैं ? हमारे नाना शूरसेन तथा छोटे मामा वसुदेव तो कुशल से हैं ? हमारी मामी देवकी अपनी सातों बहनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित प्रसन्न तो हैं ? राजा उग्रसेन और उनके छोटे भाई देवक तो कुशल से हैं ? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब, ऋषभ आदि तो प्रसन्न हैं ? हमारे स्वामी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उद्धव आदि अपने सेवकों सहित कुशल से तो हैं ? वे अपनी सुधर्मा सभा में नित्य आते हैं ? सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्वन्ती आदि उनकी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ पटरानियाँ तो नित्य ठनकी सेवा में लीन रहती हैं ? हे भाई अर्जुन! तुम्हारी कान्ति क्षीण क्यों हो रही है और तुम श्रीहीन क्यों हो रहे हो?”
धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों के बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये, उनका रंग फीका पड़ गया, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा – “हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया, वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये, प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारिका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं जिन से मैंने बड़े बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुहकी नहीं खाई थी वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है।
आपने जो द्वारिका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के श्राप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान कर के परस्पर एक दूसरे को मारते मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की लीला है।
अर्जुन के मुख से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन और सम्पूर्ण यदुवंशियों के नाश का समाचार सुन कर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तवय निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले – “हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात उन कोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगा कर शरीर त्याग दिया।

शतरूपा

शतरूपा संसार की प्रथम स्त्री थी ऐसी हिंदू मान्यता है। सुखसागर के अनुसार सृष्टि की वृद्धि के लिये ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम 'का' और 'या' (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयंभुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाये।

प्रसूति


प्रसूति स्वयंभुव मनु और शतरूपा की तीन कन्याओं में से तृतीय कन्या थी। प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। दक्ष प्रजापति की पत्नी प्रसूति ने सोलह कन्याओं को जन्म दिया जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि का साथ, सुधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ, सती नामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ, और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे - श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी और मूर्ति। अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के गर्भ से पावक, पवमान तथा शुचि नाम के पुत्र उत्पन्न हुये। इन तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि प्रकट हुये। वे ही पिता तथा पितामह सहित उनचास अग्नि कहलाये। पितृगण की पत्नी सुधा के गर्भ से धारिणी तथा बयुना नाम की दो कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनका वंश आगे नहीं बढ़ा। भगवान शंकर और सती की कोई सन्तान नहीं हुई क्योंकि सती युवावस्था में ही अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में भस्म हो गईं थीं। धर्म की बारह पत्नियों के गर्भ से क्रमशः शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मोद, अहंकार, योग, दर्प, अर्थ, स्मृति, क्षेम और लज्जा नामक पुत्र उत्पन्न हुये। उनकी तेरहवीं पत्नी मूर्तिदेवी के गर्भ से भगवान नर और नारायण अवतीर्ण हुये। वे नर और नारायण ही दुष्टों का संहार करने के लिये अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुये।

अर्जुन

जब पाण्डु संतान उत्पन्न करने में असफल रहे तो कुंती ने उनको एक वरदान के बारे में याद दिलाया। कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया अर्जुन तीसरे पुत्र थे जो देवताओं के राजा इंद्र से हुए। अर्जुन सबसे अच्छा तीरंदाज और द्रोणाचार्य का प्रमुख शिष्य था। जीवन में अनेक अवसर पर उसने इसका परिचय दिया। इसीने द्रौपदी को स्वयंवर मे जीता था। कुरूक्षेत्र युद्ध मे यह प्रमुख योद्धा था।